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श्रद्धांजलि: तब लालू ने कहा था- बिहार को भले ही बंधक रखना पड़े, वशिष्ठ बाबू का इलाज विदेश तक कराएंगे

श्रद्धांजलि: तब लालू ने कहा था- बिहार को भले ही बंधक रखना पड़े, वशिष्ठ बाबू का इलाज विदेश तक कराएंगे
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आरा, युगेश्वर प्रसाद। देश-दुनिया में अपनी गणितीय प्रतिभा का लोहा मनवाने वाले महान गणितज्ञ डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह को स्वजन जब 1994 में मानसिक स्थिति खराब होने की हालत में छपरा के डोरीगंज बाजार से घर लाए थे तो तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद उनसे मिलने सदर प्रखंड अंतर्गत बसंतपुर आए थे। उनके घर के आंगन में लालू प्रसाद खाट पर बैठे, जबकि गणितज्ञ चौकी पर पेट के बल लेटे हुए थे। उनकी हालत को देखते हुए पूर्व मुख्यमंत्री इतने भावुक हो गए कि उन्होंने कहा कि बिहार को हमें भले ही बंधक रखना पड़े, हम महान गणितज्ञ का इलाज विदेश तक कराएंगे। लालू प्रसाद ने 1994 में ही वशिष्ठ बाबू को बेहतर इलाज के लिए बंगलुरू स्थित निमहंस अस्पताल में सरकारी खर्चे पर भर्ती कराया। जहां 1997 तक उनका इलाज चला। इससे उनकी स्थिति में सुधार हुआ। वहां से वे अपने गांव बसंतपुर लौट आए।

लालू सरकार ने भाई-भतीजे समेत पांच को दी थी नौकरी

तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने महान गणितज्ञ डॉक्टर वशिष्ठ नारायण ङ्क्षसह का इलाज तो कराया ही, उनके परिवार को मुफलिसी से उबारने के लिए उनके भाई हरिश्चंद्र नारायण ङ्क्षसह, भतीजे संतोष ङ्क्षसह और अशोक ङ्क्षसह के अलावा उन्हें खोजने वाले गांव के कमलेश राम और सुदामा राम को विभिन्न विभागों में नौकरी दी। भाई हरिश्चंद्र नारायण ङ्क्षसह स्थानीय समाहरणालय में है, भतीजा संतोष ङ्क्षसह अंचल कार्यालय पीरो तथा अशोक ङ्क्षसह पुलिस विभाग में कार्यरत हैं। ग्रामीण कमलेश राम को समाहरणालय और सुदामा राम को आपूर्ति विभाग में नौकरी मिली है। पांचों लोग आज भी सेवारत हैं।

तीन भाइयों में सबसे बड़े थे वशिष्ठ नारायण

डॉ. वशिष्ठ नारायण ङ्क्षसह अपने तीन भाइयों में सबसे बड़े थे। उनसे छोटे भाई अयोध्या प्रसाद ङ्क्षसह और तीसरे भाई हरिश्चंद्र नारायण ङ्क्षसह हैं। अयोध्या प्रसाद ङ्क्षसह के पटना स्थित आवास पर गणितज्ञ पिछले कई वर्षों से रह रहे थे, जहां उनका इलाज चल रहा था।

ट्रेन से खंडवा स्टेशन पर उतर हो गए थे गुमनाम

अपने पैतृक गांव बसंतपुर से मध्यप्रदेश में इलाज कराने के लिए छोटे भाई अयोध्या सिंह व अपनी पत्नी के साथ 1989 में ट्रेन से जा रहे वशिष्ठ बाबू रात में खंडवा स्टेशन पर उतर कर गुम हो गए थे। तब ट्रेन में उनके भाई व पत्नी की आंख लग गई थी। यात्रियों ने उन्होंने बताया था कि उनके साथ वाले खंडवा स्टेशन पर उतर गए थे। दोनों लौटकर खंडवा पहुंचे और खोजबीन की, परंतु कहीं उनका पता नहीं चला। उसी समय से वे गुमनाम की जिंदगी जी रहे थे। विक्षिप्त होने के बाद वे पांच वर्षों तक गुमनामी में रहे।

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