Publish Date:Wed, 04/March2020
R24News : Holi 2020. पूर्वोत्तर का प्रवेश द्वार सिलीगुड़ी विभिन्न समुदायों और प्रांतों के लोगों के बच्चे होने के कारण इसे मिनी इंडिया कहा जाता है। नौ मार्च को होलिका दहन और 10 मार्च को यहां उत्साह पूर्वक होली मनाया जाएगा। इस वर्ष होली के उत्साहित लोगों से इको फ्रेंडली होली मना कर जीवंत रंगों का एक खूबसूरत सम्मिश्रण देख सकते हैं। क्योंकि आज के इस युग में इसकी आवश्यकता है। इसे ध्यान में रखकर विभिन्न सामाजिक संगठनों को इस पर्व को पर्यावरण के अनुकूल मनाने की कवायद शुरू की गई है। शहर की ज्योति नगर स्थित गुलाल कारखाने में भी किसी प्रकार के केमिकल मिला गुलाल तैयार ना हो, इसका विशेष ध्यान रखा जा रहा है।
कहते हैं कि होली खेलने के शौकीन लोग कृत्रिम रंगों का उपयोग करते हैं, जो न केवल पर्यावरण को बल्कि लोगों की त्वचा और आंखों को भी नुकसान पहुंचाते हैं। होलिका दहन के दौरान जलाई गई लकड़ियों का धुआं हवा में मिलकर सीधे प्रदूषण उत्पन्न करता है। होली के इस त्योहार पर पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए इको फ्रेंडली जैविक रंगों जैसे उत्पादों का उपयोग करके पर्यावरण को अधिक प्रदूषित होने से बचाकर इस त्योहार का आनंद ले सकते हैं।बदलते हालातों में होली की परम्परा अब उतनी खूबसूरत नहीं रह गई, जितनी पहले हुआ करती थी। आधुनिक होली हमारे प्रकृति और पर्यावरण के लिये घातक सिद्ध हो रही है। पानी, लकड़ी और रसायनों का बढ़ता प्रयोग इसके स्वरूप को दूषित कर रहा है। पर्यावरण के प्रति सजग लोग और समाज इसके लिये जरूर प्रयासरत है, लेकिन इसके बावजूद हजारों क्विंटल लकड़ियाँ, लाखों लीटर पानी की बर्बादी और रासायनिक रंगों का प्रभाव मनुष्य की सेहत और पर्यावरण पर हो रहा है।
आचार्य पंडित यशोधर झा का कहना है कि होलिका दहन जो मूलत: वैदिक सोमयज्ञ अनुष्ठान से आरंभ हुआ है। होलिकोत्सव इसी महाव्रत की परंपरा का संवाहक है। होली में जलाई जाने वाली आग यज्ञवेदी में निहित अग्नि का प्रतीक है। होलिका दहन में सूखे उपले गोहरी आदि जलाने का प्रावधान है। भारतीय संस्कृति में वृक्ष को दानी गुरु माना गया है जो अपना सर्वस्व मानव जीवन को समर्पित किया है ऐसे में होलिका दहन में वृक्षों को काटकर जलाना शास्त्र संगत नहीं है।
वृक्षों को जलाना शास्त्रों में वर्जित किया गया है उसमें भी कच्ची डलिया। इन दिनों देखा जा रहा है कि हर गली-मोहल्ले में होली जलाई जाती है और सैकड़ों टन लकड़ियों का इस्तेमाल किया जाता है। एक रिसर्च के मुताबिक एक होली में करीब ढाई से तीन कुंतल घड़ी जलाई जाती है। जो चिंता का विषय ह। पहले घरों से लोग गोबर के बने उपले लेकर निकलते थे और होलिका दहन करते थे, आज यह परिवर्तित हो रहा है जिससे पर्यावरण प्रदूषित होता चला जा रहा है इससे बचने के लिए लकड़ी के बजाय कंडे होलिका दहन किया जाए इससे निकलने वाला धुआं लकड़ी से 20 गुना कम होता हजारों किलो कार्बन हवा में घुलता है
शहर के चर्म रोग विशेषज्ञ डॉक्टर प्रवीण भोपालीका का कहना है कि प्रकृति में अनेक रंग बिखरे पड़े हैं। पहले समय में रंग बनाने के लिये रंग-बिरंगे फूलों (ईको फ्रेंडली होली) का प्रयोग किया जाता था, जो अपने प्राकृतिक गुणों के कारण त्वचा को नुकसान नहीं होता था। लेकिन बदलते समय के साथ शहरों और आबादी का विस्तार होने से पेड़-पौधों की संख्या में भी कमी होने लगी। सीमेंट के जंगलों का विस्तार होने से खेती कृषि प्रभावित हुई है। जिससे फूलों से रंग बनाने का सौदा महंगा पड़ने लगा। होली पर हम जिस काले रंग का उपयोग करते हैं, वह लेड ऑक्साइड से तैयार किया जाता है।
इससे किडनी पर खतरा होता है। हरा रंग कॉपर सल्फेट से बनता है, जिसका असर आंखों पर पड़ता है। लाल रंग मरक्यूरिक सल्फाइड के प्रयोग से बनता है। इससे त्वचा का कैंसर तक हो सकता है। ऐसे ही कई रासायनिक रंग हैं, जो स्वास्थ्य को हानि पहुंचाते हैं। इसलिए हमें सोचना होगा कि होली के त्योहार पर अपनों को रंगने के लिये प्राकृतिक रंगों का उपयोग किया जाये, जो न तो हानिकारक होते हैं और न ही पर्यावरण को कोई नुकसान पहुंचता है।
पानी की रोके बर्बादी
जल संरक्षण के लिए काम करने वाली संस्था नैफ के संयोजक अनिमेष बसु का कहना है कि ज़रा सोचिये होली पर हम किस हद तक पानी को बर्बाद करते है। बेशक दुनिया का दो तिहाई हिस्सा पानी से सराबोर है, लेकिन इसके बावजूद भी पीने का पानी की किल्लत हर जगह है। अनुमान है कि होली खेलने वाला प्रत्येक व्यक्ति रोजमर्रा से पांच गुना लीटर ज्यादा पानी खर्च करता है। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि पूरे इलाके में होली खेलने के दौरान कितने गैलन पानी बर्बाद होता है।
अब समय आ गया है कि बिगड़ते पर्यावरण को बचाने के लिए हमें अपने त्योहारों के स्वरूप को भी बदलना होगा। ऐसे में होली के त्योहार को भी पर्यावरण सम्मत रूप से मनाए जाने पर गंभीरता से सोचा जाना चाहिए। जब हमारा पड़ोसी राज्य सिक्किम पूरी तरह जैविक खेती वाला राज्य बन गया है तो क्यों नहीं हम पूर्वोत्तर के इस प्रवेश द्वार को जैविक होली के रूप में मना कर इतिहास बनाएं। इसी तरह के विकल्पों और प्रयोगों से होली के स्वरूप और परंपरा को बरकरार रखा जा सकेगा और प्रकृति के संरक्षण के दिशा में एक कदम बेहतरी की ओर बढ़ा सकेंगे।


